बिहार का यह सूर्य मंदिर है बेहद खास, यहां सूर्यदेव की माता ने स्वयं किया था छठ व्रत

इस मंदिर के बारे में प्रमुख बातें

बिहार में इस वक्‍त छठ महापर्व की धूम है और यहां चारों ओर सजे-धजे घाट व मंदिर इस त्‍योहार की खूबसूरती को और भी बढ़ा देते हैं। छठ मुख्‍य रूप से सूर्य की उपासना का पर्व माना जाता है और अर्घ्‍य देकर इस त्‍योहार की परंपरा निभाई जाती है। यहां कुछ प्रमुख सूर्य मंदिर जहां छठ पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इन सभी मंदिरों के पीछे कई प्रकार की पौराणिक कथाएं हैं। ऐसा ही एक मंदिर है औरंगाबाद में। इस मंदिर का अपना एक अलग इतिहास है और माना जाता है कि यहां सूर्यदेव की माता ने स्‍वयं छठ का व्रत किया था। आइए जानते हैं इस मंदिर के बारे में प्रमुख बातें…

ऐसा है मंदिर का गर्भ गृह

छठ के वक्‍त इस मंदिर का महत्‍व और भी बढ़ जाता है और इस वक्‍त यहां मेला भी लगता है। इस मंदिर में छठ की पूजा करने का विशेष महत्‍व माना जाता है। मानते हैं कि यहां भगवान सूर्य 3 रूपों में विराजमान हैं। यह पूरे देश का एकलौता सूर्य मंदिर है जिसका मुख पूर्व में न होकर पश्चिम में है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य की मुख्य प्रतिमा विराजमान है। जो कि ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश के रूप में है। वहीं गर्भगृह के बाहर मुख्‍य द्वार पर भगवान सूर्य की प्रतिमा है तो दाईं ओर भगवान शंकर की प्रतिमा है।

मंदिर से संबंधित पौराणिक कथा

मान्‍यता है कि असुरों और देवताओं के संग्राम में जब असुर हार गए थे तब देव माता अदित‍ि ने सूर्यदेव से मदद की गुहार की और कड़ी तपस्‍या पर बैठ गईं। तब माता अदिति ने तेजस्‍वी पुत्र की प्राप्ति के यहीं देवारण्‍य में आकर तपस्‍या की। तब उनका आराधना से प्रसन्‍न होकर छठी माई ने उन्‍हें सर्वगुण संपन्‍न पुत्र के प्राप्‍त होने का वरदान दिया। इसके बाद सूर्यदेव ने माता अदिति के गर्भ से जन्‍म लेने का वरदान दिया। माता अदिति के गर्भ से जन्‍म लेने के कारण सूर्यदेव का नाम आदित्‍य पड़ गया और आदित्‍य ने ही असुरों का संहार किया। उसी समय से देव सेना षष्‍ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया।

यहां की प्रतिमा है सबसे अनोखी

देश भर के अन्‍य सूर्य मंदिरों में सूर्य भगवान की ऐसी प्रतिमा नहीं देखने को मिलती। यहां हर साल छठ पर्व के दौरान भव्‍य उत्‍सव का आयोजन होता है। माना जाता है कि इस मंदिर में आकर छठ की पूजा करने से विशेष पुण्‍य की प्राप्ति होती है। व्रती की हर मनोकामना पूरी होती है।

भगवान विश्‍वकर्मा ने खुद किया है मंदिर का निर्माण

मान्‍यता है कि इस मंदिर का निर्माण भी प्राचीन काल के इंजीनियर माने जाने वाले भगवान विश्‍वकर्मा ने खुद इस मंदिर का निर्माण किया है। यहां के अभिलेखों में बताया गया है कि इसका निर्माण आठवीं और नौवीं सदी के बीच में हुआ है। मंदिर का शिल्‍प और वास्‍तु कोणार्क के सूर्य मंदिर जैसा बताया जाता है।

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