छठ पर्व क्यों है महत्वपूर्ण, जानिए इसके पीछे की पूरी कहानी

छठ की पूजा षष्ठी तिथि पर मनाया जाता है, जिस कारण इसे सूर्य षष्ठी व्रत या छठ कहा गया है। इस त्योहार में श्रद्धालु इसके तीसरे दिन डूबते सूर्य को और चौथे व अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्ध्य देते हैं। ये व्रत पुत्र प्राप्ति व उसकी लंबी आयु के लिए किया जाता है। इस पर्व के पीछे कई तरह की मान्यताएं हैं।

कैसे होता है छठ पर्व

दीपावली, काली पूजा और भैयादूज के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष तृतीया से छठ पर्व शुरू हो जाते हैं। पहले दिन नहाय-खाय में काफी सफाई से बनाए गए चावल, चने की दाल और लौकी की सब्जी का भोजन व्रती के बाद प्रसाद के तौर लेने से शुरुआत होती है। दूसरे दिन लोहंडा या खरना में शाम की पूजा के बाद सबको खीर का प्रसाद मिलता है। अगले दिन शाम में डूबते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, फिर अगली सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पूजा का समापन होता है।

क्यों मनाया जाता है छठ पर्व

सुख-समृद्धि की कामना और दूसरे मनोरथों की पूर्ति के लिए के लिए छठ पूजा की जाती है। सूर्य आराधना का यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है- चैत्र षष्ठी और कार्तिक षष्ठी को। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। कई दिनों तक चलने वाला यह पर्व पवित्रता और प्रकृति से मानव के जुड़ाव का उत्सव है। इसमें सूर्य की आराधना की जाती है और वह भी सरोवरों, नदियों या पानी के अन्य स्रोतों के किनारे।

छठ पर्व से जुड़ी मान्यताएं

एक मान्यता के अनुसार भगवान राम और माता सीता ने रावण वध के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की और अगले दिन यानी सप्तमी को उगते सूर्य की पूजा की और आशीर्वाद प्राप्त किया।

कुछ लोगों की मान्यता है कि छठ की शुरुआत महाभारत काल में हुई और सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने यह पूजा की। कर्ण अंग प्रदेश यानी वर्तमान बिहार के भागलपुर के राजा थे, कर्ण घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देता था और इन्हीं की कृपा से वो परम योद्धा बना। छठ में आज भी अर्घ्य देने की परंपरा है। महाभारत काल में ही पांडवों की पत्नी द्रौपदी के भी सूर्य उपासना करने का उल्लेख है जो अपने परिजनों के स्वास्थ्य और लंबी उम्र की कामना के लिए नियमित रूप से यह पूजा करती थीं।

राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र हुआ, लेकिन वह मरा पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने कहा, ‘सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरी पूजा करो और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करो।’ राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

पहला पड़ाव: नहाय खाय

पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके बाद छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रत करने वाले के खाने के बाद ही वब भी खाना खाते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।

दूसरा पड़ाव: खरना

दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है।

तीसरा पड़ाव: संध्या अर्घ्य

तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है। शाम को बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रत रखने वाले के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग पैदल ही सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठ का व्रत रखने वाले एक तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर अर्घ्य दान करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है।

चौथा पड़ाव: सुबह का अर्घ्य

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। व्रत रखने वाले फिर वहीं इक्ट्ठा होते हैं जहां उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पूजा के बाद कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूरा करते हैं।

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