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हिंदू धर्म में तुलसी मां की पूजा प्रायः सभी घरों में की जाती हैं। सभी शास्त्रों एवं धर्मग्रंथों में इन्हें नारायण की प्रिया श्रीमहालक्ष्मी कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार सत्ययुग में राजा कुशध्वज एवं उनकी पत्नी मालावती द्वारा मां श्रीमहालक्ष्मी को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्ति के लिए की गई घोर तपस्या से प्रसन्न होकर मां लक्ष्मी ने स्वयं अपने ही अंशरूप में उनके घर में जन्म लिया था। जन्मते ही ये उठ खड़ी हुईं और वेदमंत्र का उच्चारण करने लगीं जिससे प्रसन्न होकर मुनियों ने इन्हें वेदवती नाम दिया। अपने जन्म के तुरंत बाद ही ये तपस्या करने वन में चली गईं।
वर्षों तक श्रीहरि की तपस्या करते रहने के मध्य लंकापति रावण वहां आया और इनके साथ अभद्रता करने का असफल प्रयास किया जिससे क्रुद्ध होकर इन्होंने रावण को कुल सहित नष्ट होने का श्राप दे दिया और अपना शरीर त्याग दिया। यही वेदवती त्रेतायुग में राजा जनक की पुत्री सीता हुईं जो श्रीराम के वनवास सीताहरण के समय भी छायारूपी ‘सीता’ बनकर भगवान राम की सहचरी बनी रहीं। द्वापर युग में यही तुलसी द्रुपद नरेश की कन्या बनकर हवनकुंड से प्रकट हुईं और द्रोपदी कहलाईं।
पूर्व के जन्मों में ये तुलसी नाम की गोपी थीं और कृष्ण की प्रेयसी थीं। कालान्तर में इनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा शुक्रवार को राजा धर्मध्वज की पत्नी माधवी के गर्भ से हुआ। इनकी सुंदरता अतुलनीय थी अतः विद्वानों ने इन्हें ‘तुलसी’ नाम से अलंकृत किया। नारायण की पत्नियों लक्ष्मी और तुलसी प्रमुख हैं। भगवान कृष्ण के आठ प्रमुख पार्षद गोपों में परम भक्त सुदामा नाम के गोप जिनमें स्वयं कृष्ण के ही अंश थे वे राधा के श्रापवश पृथ्वी पर दनु कुल में शङ्खचूड नाम से उत्पन्न हुये इनको पूर्व के जन्मों की सभी बातें घटनाएं याद थीं ।
तुलसी को भी पूर्व के जन्मों की सभी घटनाएं याद थी ब्रह्मा जी के कहने पर इन्होंने गन्धर्व विवाह किया था। कृष्ण अंश शंखचूड का वध किसी से संभव न था योजनानुसार नारायण ने इनकी महान पतिव्रता पत्नी तुलसी का शंखचूड रूप धारण करके सतीत्व नष्ट किया। अपने सतीत्व के नष्ट होने के आभास से तुलसी क्रोधित होकर श्राप देने ही वाली थी की नारायण अपने असली रूप में प्रकट हो गय। तुलसी ने कहा आप पाषाण ह्रदय हैं इसलिए पाषाण होकर पृथ्वी पर रहें। फिर करुण नारायण ने कहा भद्रे ! तुम पृथ्वी पर बहुत कालतक रह कर मेरे लिए तपस्या कर चुकी हो अतः तुम इस शरीर को त्यागकर दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आनंद करो तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदी नाम से प्रसिद्द होगा। तुम्हारे केश से पवित्र वृक्ष होंगे जिनको ‘तुलसी’ नाम से जाना जाएगा।
तुलसी का वृक्ष सभी वृक्षों में श्रेष्ठ एवं निरंतर मेरे शरीर की शोभा बढ़ाएगा। जहां तुम अधिक संख्या में रहोगी वहां ‘वृन्दावनी’ कहलाओगी। ‘वृंदा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी। पुष्पसारा नंदिनी च तुलसी कृष्णजीवनी” ।। जो तुम्हारें
इन आठ नामों का जाप करेगा वह सभी पापों से मुक्त हो जाएगा। कार्तिक पूर्णिमा को ही तुलसी का जन्म हुआ और सर्वप्रथम श्रीहरि ने ही इनकी पूजा की, और कहा कि जिस घर-आँगन में तुलसी का वृक्ष रहेगा वहाँ दुःख-द्राद्रिय के लिए स्थान नहीं होगा।
कार्तिक माह में की गई इनकी पूजा वर्षभर के पूजन जैसा फल देगी। श्रीहरिप्रिया तुलसी का यह दशाक्षर मंत्र- श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृंदावन्यै स्वाहा” चारों पुरुषार्थों को देने वाला दैहिक दैविक एवं भौतिक तापों से मुक्ति दिलाता है। वैसे तो जीवन पर्यंत माँ तुलसी की पूजा-आराधना दीपदान आदि करके प्राणी अपने सभी मनोरथ पूर्ण कर सकता है किन्तु किसी कारण वश वर्ष भर ऐसा कर पाना संभव न हो तो कार्तिक माह में तुलसी के समीप सायंकालीन प्रदोष वेला में दीप-दान करते समय दशाक्षर मंत्र के जप करने से माँ लक्ष्मी की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है ।
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