पटनावासी पश्चिम एवं पूर्वी दरवाजा से भलीभाँति परिचित हैं। परंतु बहुत कम ही लोग देहली दरवाजा के नाम से अवगत होंगे। ‘अकबरनामा’ के अनुसार, पश्चिम दरवाजा का मूल नाम देहली दरवाजा था। 9 अगस्त, 1574 को अकबर ने पठानों पर विजय हासिल की और पश्चिम दरवाजा से पटना में प्रवेश किया तथा पश्चिम दरवाजा को देहली दरवाजा का नाम दिया। पश्चिम दरवाजा सुरक्षा द्वार का अंतिम अवशेष है।
पश्चिम दरवाजा यानी पटना शहर का पश्चिमी दवार। यह शेरशाह के समय के सुनहरे इतिहास का परिचय करवाता है। आज का पटना यानी कल का पाटलिपुत्र 2500 अर्थात् ढाई हजार वर्ष पूर्व चारो ओर मजबूत दीवार से घिरा था। इसमें 64 दरवाजे थे। शेरशाह ने इस चहारदीवारी से घिरे किले के बीच एक राजमार्ग का निर्माण करवाया। आज यही अशोक राजपथ के नाम से जाना जाता है। पाटलिपुत्र की सुरक्षा के लिए पूर्व और पश्चिम दिशा में लकड़ी के दो प्रवेश द्वार थे, जिन्हें पूरब एवं पश्चिम दरवाजे के नाम से जाना जाता था। द्वार पर काले ‘संगमूसे’ पत्थर से बने स्तंभ थे जिनपर अनोखी कलाकृतियाँ बनी थीं। कालांतर में पूर्व का स्तंभ विलीन, नष्ट हो गया, परंतु पश्चिम दूवार का एक स्तंभ प्रतीक रूप में विद्यमान है।
शेरशाह के शासनकाल में पश्चिम दरवाजा प्रवेश द्वार हुआ करता था, वह आज मात्र विशाल फाटक स्तंभ से सटा है, शेष बचा है। अशोक राजपथ के किनारे लोहे के ग्रिल से घिरा मात्र गंदगी से पटा भग्नावशेष बना खड़ा है। यहाँ बने शिलापट्ट पर धूल की परत जमी है। इस पर लिखे ऐतिहासिक तथ्यों को कठिनता से ही पढ़ा जा सकता है। शिलालेख का धूल-धूसरित हो कूड़ेदान में तब्दील हो जाना हमारे अतीत के गौरव को सुरक्षा प्रदान करने के स्थान पर समाज पर निंदनीय एवं हास्यास्पद प्रश्नों की झड़ी लगा रहा है। आज पश्चिम दरवाजा को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने की जरूरत है।
पश्चिम दरवाजे का कूड़ेदान में परिवर्तित हो जाना हमारे वर्तमान पुरातत्व विभाग की अकर्मण्यता है । पटना को राजधानी बने रहने के लिए पश्चिम दरवाजे की मरम्मत एवं सफाई पर ध्यान देना अत्यावश्यक है। पश्चिम दरवाजा अपने समय में बहुत प्रसिद्ध था, लेकिन नई पीढ़ी इसके बारे में कुछ नहीं जानती है।
There are times when you wish you could get away from it all by moving…
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